Buchcover für अहिंसा

अहिंसा

Buchbeschreibung

इन छोटे-छोटे जीवों को मारना, वह द्रव्यहिंसा कहलाता है और किसी को मानसिक दुःख देना, किसी पर क्रोध करना, गुस्सा होना, वह सब भावहिंसा कहलाता है। लोग चाहे जितनी अहिंसा पाले, लेकिन अहिंसा इतनी आसानी से नहीं पाली जा सकती। और वास्तव में क्रोध-मान-माया-लोभ ही हिंसा हैं। द्रव्यहिंसा कुदरत के लिखे अनुसार ही चलती है। इसमें किसी का चले, ऐसा नहीं है। इसलिए भगवान ने तो क्या कहा है कि सबसे पहले, खुद को कषाय नहीं हो, ऐसा करना। क्योंकि ये क्रोध-मान-माया-लोभ, वे सबसे बड़ी हिंसा हैं। द्रव्यहिंसा हो तो भले हो, लेकिन भाव हिंसा नहीं होनी चाहिए। लेकिन लोग तो द्रव्यहिंसा रोकते हैं और भाव हिंसा तो चलती ही रहती है। इसलिए किसी ने निश्चित किया हो कि “मुझे तो मारने ही नहीं हैं” तो भाग्य में कोई मरने नहीं आता। अब वैसे तो उसने स्थूल हिंसा बंद कर दी, कि मुझे किसी जीव को मारना ही नहीं है। लेकिन बुद्धि से मारना, ऐसा निश्चित किया, तो उसका बाज़ार खुला ही रहता है। तब वहाँ कीट पतंगे टकराते रहते हैं। और वह भी हिंसा ही है न! अहिंसा के बारे में इस काल के ज्ञानी, परम पूज्य दादाश्री के श्रीमुख से निकली हुई वाणी, इस ग्रंथ में संकलित की गई है। इसमें हिंसा और अहिंसा – दोनों के तमाम रहस्यों से पर्दा हटाया है।

Autor oder AutorinDadaBhagwan